भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।कक्षा नवीं में ‘पर्यावरण संरक्षण’ विषय के अन्तर्गत इस मुक्त पाठ्य सामग्री में पर्यावरण विघटन की गम्भीर समस्या पर चर्चा करते हुए, पर्यावरण संरक्षण पर तथ्यात्मक जानकारी प्रस्तुत की गई है। इससे शिक्षार्थी इस विषय पर ज्ञानार्जन करके पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकेंगे और समाज में जागरुकता लाने में सहायक सिद्ध हो सकेंगे।
मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित है। प्रकृति एक विराट शरीर की तरह है। जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पहाड़ आदि उसके अंग-प्रत्यंग हैं। इनके परस्पर सहयोग से यह वृहद शरीर स्वस्थ और सन्तुलित है। जिस प्रकार मानव शरीर के किसी एक अंग में खराबी आ जाने से पूरे शरीर के कार्य में बाधा पड़ती है, उसी प्रकार प्रकृति के घटकों से छेड़छाड़ करने पर प्रकृति की व्यवस्था भी गड़बड़ा जाती है।
प्रकृति के साथ दुश्मन की तरह नहीं, वरन दोस्त की तरह काम करना चाहिए। हम दिनों दिन पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं, जिसके परिणाम भविष्य में घातक हो सकते हैं। पर्यावरण संरक्षण पर तथ्यात्मक जानकारी हासिल कर आप स्वयं पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को जान समझ सकते हैं तथा इस अभियान में अपने स्तर पर सतत प्रयासरत रह सकते हैं।
पर्यावरण संरक्षण
भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण को बहुत महत्त्व दिया गया है। यहाँ मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी, वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है। पर्यावरण शब्द का अर्थ है हमारे चारों ओर का वातावरण। पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के वातावरण को संरक्षित करें तथा उसे जीवन के अनुकूल बनाए रखें। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है।
भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहाँ पर्यावरण संरक्षण का भाव अति पुरातनकाल में भी मौजूद था पर उसका स्वरूप भिन्न था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करने वाली संस्थाएँ नहीं थीं। पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रियाकलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालीदास, दाण्डी, पंत, प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है।
भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।
जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार सन्तुलन बनाए रखने हेतु 33 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिये समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भाँति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का सन्तुलन बना रहे।
सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राज-चिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।
वैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ हमारे लिये शान्तिप्रद हों। ये शान्तिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है। पर्यावरण संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अन्त दिखाई दे रहा है।
प्रकृति के साथ अनेक वर्षों से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिये अब दूर जाने की जरूरत नहीं है। विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त होते पेड़-पौधों और जीव जन्तु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गन्दी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपने धरती और अपने पर्यावरण की ठीक-ठीक देखभाल नहीं की।
अब इससे होने वाले संकटों का प्रभाव बिना किसी भेदभाव के समस्त विश्व, वनस्पति जगत और प्राणी मात्र पर समान रूप से पड़ रहा है। आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं। सुख की इसी असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रकृति के शोषण को निरन्तर बढ़ावा दिया है। पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है जिसका सामना सरकारों तथा जागरूक जनमत द्वारा किया जाना है।
हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार वायु, जल एवं मृदा आज खतरे में हैं। सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों का संकट बढ़ता जा रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दूभर हो गया है, क्योंकि धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं। वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को श्वास सम्बन्धी बीमारियाँ आम बात हो गई है।
वायु प्रदूषण के लिये वाहन भी कम उत्तरदाई नहीं हैं। बसों, कारों, ट्रकों, मोटर-साइकिलों, स्कूटर, रेलों आदि सभी में पेट्रोल अथवा डीजल ईंधन के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। इनसे भारी मात्रा में दम घोंटने वाला काला धुआँ निकलता है, जो वायु को प्रदूषित करता है। डीजल वाहनों से जो धुआँ निकलता है उनमें हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन एवं सल्फर के ऑक्साइड तथा सूक्ष्म कार्बन-युक्त कणिकाएँ मौजूद रहती हैं। पेट्रोल चलित वाहनों के धुएँ में कार्बन मोनो-ऑक्साइड व लेड मौजूद होते हैं। लेड एक वायु प्रदूषक पदार्थ है। डीजल एवं पेट्रोल चालित वाहनों में होने वाले दहन से नाइट्रोजन ऑक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भी उत्पन्न होती है जो सूर्य के प्रकाश में हाइड्रोकार्बन से मिलकर रासायनिक धूम कुहरे को जन्म देते हैं।
यह रासायनिक धूम कोहरा मानव के लिये बहुत खतरनाक है। हमारे लिये हवा के बाद जरूरी है जल। इन दिनों जलसंकट बहु-आयामी है, इसके साथ ही इसकी शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि हमारे देश में सतह के जल का 80 प्रतिशत भाग बुरी तरह से प्रदूषित है और भूजल का स्तर निरन्तर नीचे जा रहा है। शहरीकरण और औद्योगीकरण ने हमारी बारहमासी नदियों के जीवन में जहर घोल दिया है। हालत यह हो गई है कि मुक्तिदायिनी गंगा की मुक्ति के लिये अभियान चलाना पड़ रहा है। गंगा ही क्यों किसी भी नदी की हालत आज ठीक नहीं कही जा सकती है।
भारत के प्रमुख शहरों में मोटर वाहनों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषक (टन प्रतिदिन) |
शहर |
सूक्ष्म कण |
सल्फर डाइऑक्साइड |
नाइट्रोजन ऑक्साइड |
नाइट्रोजन ऑक्साइड |
दिल्ली |
8.58 |
7.4 |
105.38 |
452.51 |
मुम्बई |
4.66 |
3.36 |
59.02 |
391.6 |
बंगलुरु |
12.18 |
1.47 |
21.85 |
162.8 |
कोलकाता |
2.71 |
3.04 |
45.58 |
156.87 |
चेन्नई |
1.95 |
1.68 |
23.91 |
119.35 |
भारत (अनुमानित औसत) |
60 |
630 |
270 |
2040 |
हमारी मृदा का स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं कहा जा सकता है। देश की कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 17 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर जमीन गुणवत्ता के सन्दर्भ में निम्न स्तर की है। हमारी पहली वन नीति में यह लक्ष्य रखा गया था कि देश का कुल एक तिहाई क्षेत्र वनाच्छादित रहेगा। कहा जाता है कि इन दिनों हमारे यहाँ 9 से 12 प्रतिशत वन आवरण शेष रह गया है। इसके साथ ही अतिशय चराई और निरन्तर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बह-बहकर समुद्र में जा रही है। इसके कारण बाँधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट बढ़ता जा रहा है। आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृति के सम्मुख अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है।
आज दुनिया भर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराया जाये, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाये और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गम्भीरता से किये जा सकें। इसमें लोक चेतना में मीडिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
दुनिया में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मीडिया में पर्यावरण के मुद्दों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। भारतीय परिदृश्य में देखें तो छठे-सातवें दशक में पर्यावरण से जुड़ी खबरें यदाकदा ही स्थान पाती थी। उत्तराखण्ड के चिपको आन्दोलन और 1972 के स्टाकहोम पर्यावरण सम्मेलन के बाद इन खबरों का प्रतिशत थोड़ा बढ़ा। देश के अनेक हिस्सों में पर्यावरण के सवालों को लेकर जन जागृतिपरक समाचारों का लगातार आना प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1984 में शताब्दी की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना, भोपाल गैस त्रासदी के बाद तो समाचार पत्रों में पर्यावरणीय खबरों का प्रतिशत यकायक बढ़ गया। यह त्रासदी इतनी भयानक थी कि इसका असर इतने वर्षों बाद भी देखा जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिये आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है जब हम अपनी नदियाँ, पर्वत, पेड़, पशु-पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सकें। इसके लिये सामान्य जन को अपने आस-पास हवा-पानी, वनस्पति जगत और प्रकृति उन्मुख जीवन के क्रिया-कलापों जैसे पर्यावरणीय मुद्दों से परिचित कराया जाये। युवा पीढ़ी में पर्यावरण की बेहतर समझ के लिये स्कूली शिक्षा में जरूरी परिवर्तन करने होंगे। पर्यावरण मित्र माध्यम से सभी विषय पढ़ाने होंगे, जिससे प्रत्येक विद्यार्थी अपने परिवेश को बेहतर ढंग से समझ सके। विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव पर भी समुचित ध्यान देना होगा।
प्रकृति के प्रति प्रेम व आदर की भावना, सादगीपूर्ण जीवन पद्धति और वानिकी के प्रति नई चेतना जागृत करनी होगी। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिये एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये। इसके लिये सघन एवं प्रेरणादायक लोक-जागरण अभियान भी शुरू करने होंगे। आज हमें यह स्वीकारना होगा कि हरा-भरा पर्यावरण, मानव जीवन की प्रतीकात्मक शक्ति है और इसमें समय के साथ-साथ हो रही कमी से हमारी वास्तविक ऊर्जा में भी कमी आई है। वैज्ञानिकों का मत है कि पूरे विश्व में पर्यावरण रक्षा की सार्थक पहल ही पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने की दिशा में किये जाने वाले प्रयासों में गति ला सकती है।